लोक कल्याण की भावना

पुराने जमाने की बात है। एक राजा ने दूसरे राजा के पास एक पत्र और सुरमे की एक छोटी सी डिबिया भेजी।

 

पत्र में लिखा था कि जो सुरमा भिजवा रहा हूं, वह अत्यंत मूल्यवान है।

 

इसे लगाने से अंधापन दूर हो जाता है।

 

राजा सोच में पड़ गया। वह समझ नहीं पा रहा था, कि इसे किस-किस को दे।

 

उसके राज्य में नेत्रहीनों की संख्या अच्छी-खासी थी,

 

पर सुरमे की मात्रा बस इतनी थी जिससे दो आंखों की रोशनी लौट सके।

 

राजा इसे अपने किसी अत्यंत प्रिय व्यक्ति को देना चाहता था।

 

तभी राजा को अचानक अपने एक वृद्ध मंत्री की स्मृति हो आई।

 

वह मंत्री बहुत ही बुद्धिमान था, मगर आंखों की रोशनी चले जाने के कारण उसने राजकीय कामकाज से छुट्टी ले ली थी, और घर पर ही रहता था।

राजा ने सोचा कि अगर उसकी आंखों की ज्योति वापस आ गई, तो उसे उस योग्य मंत्री की सेवाएं फिर से मिलने लगेंगी।

 

राजा ने मंत्री को बुलवा भेजा और उसे सुरमे की डिबिया देते हुए कहा, ‘इस सुरमे को आंखों में डालें।

 

आप पुन: देखने लग जाएंगे।

 

ध्यान रहे यह केवल 2 आंखों के लिए है।’

 

मंत्री ने एक आंख में सुरमा डाला।

 

उसकी रोशनी आ गई। उस आंख से मंत्री को सब कुछ दिखने लगा।

 

फिर उसने बचा- खुचा सुरमा अपनी जीभ पर डाल लिया।

 

यह देखकर राजा चकित रह गया।

 

उसने पूछा, ‘यह आपने क्या किया?

 

अब तो आपकी एक ही आंख में रोशनी आ पाएगी।

 

लोग आपको काना कहेंगे।’

 

मंत्री ने जवाब दिया, ‘राजन,चिंता न करें।

 

मैं काना नहीं रहूंगा। मैं आंख वाला बनकर हजारों नेत्रहीनों को रोशनी दूंगा।

मैंने चखकर यह जान लिया है,कि सुरमा किस चीज से बना है।

 

मैं अब स्वयं सुरमा बनाकर नेत्रहीनों को बांटूंगा।’

 

राजा ने मंत्री को गले लगा लिया और कहा,

 

‘यह हमारा सौभाग्य है कि मुझे आप जैसा मंत्री मिला।

 

अगर हर राज्य के मंत्री आप जैसे हो जाएं तो किसी को कोई दु:ख नहीं होगा।

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